Friday, 26 April 2013


मेरी खिड़की पे बैठा हुआ, चाँद देखो है क्या कह रहा,
अपने ग़म को जुबां से कहो, आंसुओं से है क्यूँ बेह रहा?
मौसम-ए-हिज्र मे भी ए साथी, हाथ क्यूँ तुम उठाए हुये हो?
वो मुनासिब तो होगा नहीं, आस जो तुम लगाए हुये हो।
हर तमन्ना है इक मौज सी, उठती और गिरती रहती है ये,
धूप और छांव है ज़िंदगी तो चलती और फिरती रहती है ये,
हौसलों की नुमाइश न कर, अपनी तू आजमाइश न कर,
ख्वाहिशें सब तेरी पूरी हो, बेतुकी ऐसी ख़्वाहिश न कर।
एक वादा किया था कभी, मैं निभा ही रहा हूँ उसे,
भूल कब का गया था मुझे, मैं भुला ही रहा हूँ उसे।
आंसुओं, मौसमो, ख़्वाहिशों का, ज़ोर मुझपे है क्या रह गया?
ज़िंदगी कर्ज़ तेरा बता, और मुझपे है क्या रह गया?

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