कुछ तो उदासी का सबब रहा होगा,
ये दिल आखिर यूं ही भर
नहीं आता।
रोने को तो हजारों बहाने होते हैं,
कमबख्त हमें
भी हंसने का हुनर नहीं आता।
शहर की तरह दिल पे भी ताले पड़े हैं,
कोई उधर नहीं जाता, कोई इधर नहीं आता।
वो ढूंढ लेते हैं अंधेरे मे भी दुश्मन अपना,
हमें उजाले में भी अपना नज़र नहीं आता।
रस्म-ए-दुआ अदा करके मैं खूब रोया हूँ,
यूं ही तो मेरी दुआओं में असर नहीं आता।
मेरी मुसीबतों का कहर टूटे बस मुझ पर,
मेरे हमदर्द का दर्द मुझे
सबर नहीं आता।
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