
राजनीति के इस महामंच से,
प्रसारित होते छल प्रपंच से,
हम सब ठगे से जा रहे हैं,
अंधे होकर भगे से जा रहे हैं।
आरोप प्रत्यारोप का दौर है,
सत्ता का लोभ चहुँ और है,
ओछे बयानों के भार से,
हम गधे से लदे से जा रहे हैं,
अंधे होकर भगे से जा रहे हैं।
इस भूचाल के मंथन को,
राष्ट रक्षा के चिंतन को,
समाप्त करने ध्वंस को,
भ्रष्टाचार रूपी कंस को,
कृष्ण जन्म के स्वप्न में,
दिन रात जगे से जा रहे हैं।
अंधे होकर भगे से जा रहे हैं।
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